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१४ मई, ११५८
'जैसे वनस्पति-जीवनमें सचेतन पशुको धुंधली-सी संभावना रहती है, जैसे पशु मानस-संवेदन, इंद्रिय-बोध और धारणाके प्रारंभिक तत्त्वोंसे स्पंदित होता है, जो विचारशील मनुष्यकी प्रथम भूमि हैं, उसी तरह मनुष्य या मानसिक सत्तामेंसे आध्यात्मिक मनुष्य, संपूर्ण चिन्मय जीवका विकास होता है । विकसनशील ऊर्जा अपने पहले जड़ स्वरूपका अतिक्रमण करनेवाले, अपनी सच्ची आत्मा और उच्चतम प्रकृतिकी खोज करनेवाले मनुष्यको प्रकट करने के लिये मनुष्यको उदात्त बनाती है ।
' 'लेकिन अगर इसे प्रकृतिके अभिप्रायके रूपमें मान लिया जाय तो तुरंत दो प्रश्न उठते हैं और निश्चयात्मक उत्तरकी मांग करते हैं -- पहला, मनोमय सत्तासे आध्यात्मिक सत्ताकी ओर संक्रमण- का ठीक-ठीक स्वरूप क्या होगा और, जब इसका उत्तर मिल जाय, तो दूसरा, मनोमय मनुष्यमें आध्यात्मिक मनुष्यके विकास- की प्रक्रिया और पद्धति क्या होगी? पहली दृष्टिमें यह स्पष्ट मालूम होता है कि जैसे हर श्रेणी अपने से पहलेकी श्रेणीमें केवल प्रकट ही नहीं, बल्कि उन्मज्जित होती है, जैसे 'प्राण' 'जड़- तत्त्व' में उन्मज्जित होता है और अपनी अभिव्यक्तिमें बड़ी हदतक उसकी भौतिक परिस्थितियोंमेंसे सीमित और निर्धारित होता है; जैसे मन जडमें स्थित प्राणमें उन्मज्जित होता है ओर उसी तरह अपनी अभिव्यक्तिमें भौतिक और प्राणिक परिस्थितियोंसे सीमित और निर्धारित होता है, उसी तरह आत्माको भी आडूमें स्थित प्राणमें प्रकट होने वाले मनमें उन्मज्जित होना होगा और वह भी वडी हदतक मानसिक स्थितियोंसे - जिनमें उसको जड़ें हैं -- और प्राणकी अवस्थाओं और अपने जीवनकी भौतिक अवस्थाओं- से सीमित ओर निर्धारित होगी । ''
( ' लाइफ डिवईन, पृ ० ८५१ - ५२)
जैसे-जैसे अतिमानसिक जीवनकी -- जो विश्वके उन्मीलनमें अगली ससिद्धि होनी चाहिये -- प्रारंभिक अवस्थाएं, शायद बहुत स्पष्ट तो नहीं, फिर भी निश्चित रूपसे, धीरे-धीरे विकसित हो रही हैं, यह अधिकाधिक स्पष्ट होता
३०१ जा रहा है कि अतिमानसिक जीवनतक पहुंचनेके लिये सबसे कठिन सावन है बौद्धिक क्रियाशीलता ।
यह कहा जा सकता है कि जीवनमें किसी चैत्य भावसे -- जो जड-पदार्थसे भागवत उपस्थितिकी प्रतिच्छायाके समान, एक आलोकित निस्सरण- के समान है --अतिमानसिक चेतनाकी ओर जानेकी अपेक्षा मानसिकसे अति- मानसिक जीवनकी ओर जाना कहीं अधिक कठिन है । उच्चतम बौद्धिक चितनसे किसी भी अतिमानसिक स्पंदनतक जानेकी अपेक्षा चैत्य भावसे अतिमानसिक चेतनातक जाना कहीं अधिक आसान है । शायद यह शब्द ही हमें धोखा देता है । शायद, चूंकि हम उसे ''अतिमानसिक'' कहते-- है, इसलिये उच्चतर मानसिक, बौद्धिक क्रियाद्वारा उसतक पहुंचनेकी आशा करते है? लेकिन तथ्य बहुत भिन्न है । इस अति उच्च, अति शुद्ध, अति प्रशस्त, बौद्धिक क्रियाद्वारा मनुष्य एक तरहकी ठंडी, शक्तिहीन भावमयताकी ओर, एक बोझी ज्योतिकी ओर जाता दिखता है जो निश्चित ही जीवन- सें बहुत दूर है और अतिमानसिक सत्यके अनुभवसे तो ओर भी अधिक दूर ।
इस नये पदार्थमें, जो संसारमें फैल रहा है और काम कर रहा है, इतनी प्रगाढ़ एक उष्णता है, शक्ति और आनंद है कि इसके सामने सारी बौद्धिक क्रिया ठंडी और शुष्क दिखती है । और इसीलिये इन विषयोंपर जितना कम बोला जाय उतना अच्छा । मात्र एक क्षण, गहरे और सच्चे प्रेमइक् मात्र एक उछाल, बोधका वह सिर्फ एक क्षण जो भागवत कृपामें मिलता है, सब संभव व्याख्याओंकी अपेक्षा लक्ष्यके अधिक समीप लें जाता है ।
सूक्ष्म, स्पष्ट, आलोकित, पैना ओर गहराईतक पैठनेवाला एक तरहका सूक्ष्म संवेदन सूक्ष्मतम व्याख्याओंकी अपेक्षा द्वारको ज्यादा खोल देता है । यदि हम अनुभवको और आगे बढ़ाये तो लगता है कि जब हम शरीरके रूपांतरका काम हाथमें लेते है, जब शरीरके कुछ कोषाणु जो औरोंसे अधिक तैयार, अधिक परिष्कृत, अधिक सूक्ष्म और अधिक नमनीय हैं, जो भागवत कृपा, भागवत संकल्प, भागवत शक्तिको और उस ज्ञानका उपस्थितिको जो बौद्धिक नही है अपितु तादात्म्यद्वारा प्राप्त शान है, मूर्त रूपमें अनुभव करने- मे सफल हों जाते हैं, जब हम शरीरके कोषाणुओंमें इसका अनुभव पाते हैं, तब, वह अनुभूति इतनी पूर्ण, इतनी अनिवार्य, इतनी जीवंत, मूर्त, स्फाटक और यथार्थ होती है कि बाकी सब निरर्थक सपना लगता है ।
और इसीलिये हम कह सकते है कि जब सचमुच वृत्त पूरा हो जायगा और दोनों छोर आपसमें मिल जायेंगे, जब उच्चतम निपट जडमें आविर्भूत होगा, तभी अनुभूति सचमुच निर्णायक होगी ।
ऐसा लगता है कि हम सचमुच कमी नहीं समझ सकते जबतक कि अपने शरीरद्वारा नहीं समझ लेते । ३०२
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